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बेमेल प्रतियोगिता से सृजनात्मक कार्यों में पिछड़ते युवा

बेमेल प्रतियोगिता से सृजनात्मक कार्यों में पिछड़ते युवा

कुछ दशकों से भारतीय समाज में एक बेमेल प्रतियोगिता चल रही है जिसका खामियाजा बहुत से निरअपराध विद्यार्थियों को झेलना पढ़ रहा है। आज समाज का ऐसा ताना बाना बन गया है की मात्र ऊँचे पद,वेतन तथा एक विशिष्ट “जीवन शैली” की कामना ने तूल पकड़ लिया है। इस चाह में विद्यार्थी जीवन *आवश्यक गुण व कौशल* हासिल करने में नाकाम साबित हो रहे हैं , इस वजह से आगे चलकर देश में जीवन यापन करने में उन्हें दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है । आज पढाई पूरी करने के बाद एक “हायफाय” शुरुआत हो,यह अभिलाषा, समाज तथा विद्यार्थियों के माता पिता के मन में समा गयी है पर सफलता के लिए अनेक तजुर्बे लेना व उनसे सीखने की भी जीवन में आवश्यकता होती है  इनके लिए समय निकालना आज एक व्यर्थ अभ्यास समझा जा रहा है ।
हकीकत में आज क्या हो रहा है अधिकांश युवाओं को अपनी योग्यता साबित करने का अवसर ही नहीं मिल रहा है अपना जीवन उददेश्य व चाह जानने के लिए सृजनात्मकता गतिविधियों में भाग लेने का अवसर ही प्राप्त नहीं हो रहा है, इस कारण आज हमारी युवा पीढ़ी कुंठाग्रस्त है व अनेक विडंबनाओं व दुविधाओं से जूझ रही है ।
चूक कहाँ पर हो रही है , बाल्यकाल ऐसा समय होता है ,जिसमें बच्चे भय मुक्त होकर खेलकूद तथा सामूहिक गतिविधियों से मनोरंजन करते हैं व प्राकृतिक ढंग से आत्मविश्वास अर्जन करते हैं लेकिन उसकी जगह आज उनके मुँह पर उदासी छा गयी है, वे खुल कर हंसना तक भूल गए हैं । अत्यधिक पाठ्यक्रम के बोझ तले विद्यार्थी मात्र पाठ्यक्रम की पढाई, होमवर्क तथा परीक्षाओं की तैयारी करते हुए ही पाए जाते हैं।
इस तरह की पढाई से न उन्हें, अपने सीखे हुए ज्ञान को परीक्षण करने का अनुभव मिल रहा है ,नाही प्राकृतिक ढंग से विद्या ग्रहण करने का , एक ही तरह का कार्य साल दर साल करने से वे ऊब रहे हैं व कई तो सीखने में भी रूचि खो रहे हैं ।

“जब एक टीचर भी साधारणतया दो या तीन विषय को कुशलता से पढ़ा सकता है,तो विद्यार्थियों के हर विषय में ऊँचे अंक लाने की अपेक्षा को बाल्यकाल से ही क्यों बल दिया जा रहा है?

यह भी एक कटु सच है की ऊँचे अपेक्षाओं के बोझ के तले आज विद्यार्थी बड़ी संख्या में मनोरोगी बन रहे हैं तथा अनेक व्यसनों जैसे -(मोबाइल गेम्स ) में लिप्त पाए जा रहे हैं ,कोई आश्चर्य की बात नहीं है की इन कारणों के वजह से ‘भारत में कई विधार्थी अपने प्राण त्याग रहा है ‘ जरूरत है इस व्यवस्था को तुरंत बदलने की !
 युवा कहाँ पिछड़ रहे हैं? आज सरकारी नौकरी कम होती जा रही है ,आवेदन करने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है, इसके अलावा कोई मार्ग भी नहीं दिखाई दे रहा है । भारत में स्वरोजगार के अनेक अवसर हैं ,पर उसके लिए जो आत्मविश्वाश तथा सृजनात्मकता चाहिए वह सीखाने वाले विद्यालय बहुत कम रह गए हैं । ऊंचा पद ,वेतन पाने की तैयारी करते हुए विद्यार्थी सृजनात्मकता की तिलांजलि पहले ही दे चुके हैं । एक निश्चित समय तक जीवन में स्थापित हो जाना , अपनी मंजिल समझ लेना , हर वर्ग के विद्यार्थियों के लिए संभव नहीं है ,रसूखदार वर्ग के विद्यार्थियों तथा कुछ कुशाग्र बुद्धि वालों के लिए तो यह संभव है पर मध्यवर्गीय तथा निम्न स्तर से आने वाले अनेक विद्यार्थियों के लिए यह बेहद कठिन  है ।

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इसमें मार्ग क्या है ।

जीवन एक संघर्ष है ,तथा इसे पार करने के लिए उद्यमी होने के साथ-साथ सयंम व परस्पर सहयोग की भी आवश्यकता है । अनेक महान लोगों की जीवनियां पढ़े तो यहीं गुण उनके सफलता की कुंजी बनी थी । आज के परिवेश में युवाओं को अगर भारत में काम मिलना है ,तो पढ़ाई/कौशल विकास के साथ साथ परस्पर सहयोग व सेवा कार्य में भी अनुभव लेने की आवश्यकता है । जीवन रथ में सफलतापूर्वक सवारी के लिए उसके चारों पहिये को सुचारु रूप से चलने की आवश्यकता है मात्र एक पहिया (पढाई )से यह चल नहीं सकता ।
जहां ज्ञान, (डिग्री) व कौशल हमें काम ढूंढ़ने में मदद करता है वही सेवा और परस्पर सहयोग से हमें जीवन में सहनशीलता व संगठन की शक्ति का एहसास होता है , इनकी ताकत को समझना है तो कई दशक पहले के इतिहास में झाँकना होगा ।
लाखों पढ़े लिखे नौजवानों ने अपने आप को देश सेवा के लिए अर्पण कर दिया । गांधीजी के नेतृत्व में संगठित तरीके से विशाल अंग्रेजी साम्राज्य का सामना किया, इस तरह पायी हुई शिक्षा का विपरीत परिस्तिथियों में इस्तेमाल कर उसे सार्थक किया , उन लोगों ने बिना परिणाम की चिंता किये लाठियां खायी ,पर अहिंसा का मार्ग नहीं छोड़ा और भारत को गुलामी की जंजीर से निकालकर ही दम लिया व अपने चुने हुए महान उद्देश्य को पूरा करने में सफलता पायी । सत्य,सेवा तथा सहनशीलता से यह दुर्गम कार्य सफल हुआ जिसकी मिसाल आज भी दुनिया में कायम है । स्वतंत्रता के वीरों व सेवाधारीयों के बारे में पढ़कर यह ज्ञात होता है की असहाय पीड़ा व तकलीफों से गुजरने के बाद भी उन्होंने उम्मीद बनायी रखी व आत्महत्या जैसा कदम नहीं उठाया ।
आज हमारे युवा निराशा से घिर जाने पर अक्सर व्यसनों में डूब जाते हैं ,कुछ तो नासमझ होने पर आत्महत्या जैसा कदम उठा लेते हैं । सेवा कार्य हमें जीवन का उद्देश ढूढ़ने में मदद करते  हैं और जीवन के उतार चढ़ाव से झूझने का अभ्यास कराते हैं ,नोबेल पुरस्कार से सम्मानित भारतीय “मदर थेरेसा” का त्याग व सेवामय जीवन  हमारे लिए इस बाबत एक बड़ी प्रेरणा हैं, आज इन्हीं गुणों को धारण करने की आवश्यकता है ।
कॉलेजों/स्कूलों में पढाई मात्र ज्ञान व नौकरी पाने हेतु ही नहीं पर जीवन के उददेश्य जानने के लिए भी हो !

“सेवा तथा सामूहिक सहयोग” के कार्यों को करके ,जीवन का उद्देश्य भी मिलेगा तथा सफल होने का मार्ग भी खुल जायेगा ।

‘शिक्षा की न कहीं से शुरुआत है और नाही कहीं इसका अंत

आज पूरे विश्व में नर्सों ,सुरक्षा अधिकारी ,सफाई कर्मचारी व किसानो की सेवा भावना तथा कर्मठता की तारीफ हो रही है । एक कठिन दौर में गुजरते हुए भारत में उन्होंने सेवा, सहयोग का मार्ग चुनकर सफलता पूर्वक अपने कार्यों का निर्वाह किया है ,इनसे सीख लेते हुए युवाओं को सेवा के कामों में समय देने की आवश्यकता पर बल देना होगा। अगर आज हमें युवाओं से बड़ी उम्मीद है ,तो यह भी देखने की आवश्यकता है की समय रहते उन्हें अपनी शक्तियां पहचानने व कमजोरियों पर काम करने का अवसर मिले । भारत में जीवन यापन करना है ,तो यहां के इतिहास ,संस्कृति ,भाषाओं ,व प्रांतीय परम्पराओं ,अभिलाषाओं की भी जानकारी होनी चाहिए तथा इनका ज्ञान लेने के लिये अतिरिक्त समय देना व्यर्थ कार्य न समझा जाये ।
समाज व अभिभावकों की बेहद महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है की युवाओं को स्वालम्बी बनने में सहयोग दें, मात्र अपनी अभिलाषा पूरी करने का साधन न बनायें अन्यथा सारी मेहनत व्यर्थ है

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